बिहार में लिंगानुपात का लगातार गिरना एक गंभीर सामाजिक संकट का रूप ले चुका है। नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, राज्य में यह आंकड़ा घटकर मात्र 891 लड़कियां प्रति 1,000 लड़के हो गया है, जो 2020 के 964 और 2021 के 908 के मुकाबले एक बड़ी गिरावट है। यह न केवल देश के सबसे कम लिंगानुपात वाले राज्यों में से एक है, बल्कि यह लड़कियों के प्रति समाज की बदलती सोच और गहरे होते लैंगिक भेदभाव को भी दर्शाता है। ऐसे में बिहार में गहराता लिंगानुपात संकट पर लोग पूछ रहे हैं कि बेटियाँ कहाँ गुम हो रही हैं?
गिरावट के संभावित कारण
इस चिंताजनक गिरावट के पीछे कई जटिल सामाजिक और आर्थिक कारण माने जा रहे हैं। अल्ट्रासाउंड जैसी तकनीकों का दुरुपयोग कर लिंग परीक्षण और उसके बाद कन्या भ्रूण हत्या अभी भी कई ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में एक कड़वी सच्चाई है। पुत्र की चाह में बच्चियों को जन्म लेने से पहले ही मार देना इस गिरावट का एक प्रमुख कारण है। भारतीय समाज में, विशेषकर बिहार जैसे राज्यों में, बेटे को वंश का वाहक और बुढ़ापे का सहारा मानने की गहरी जड़ें जमा चुकी धारणा आज भी कायम है। यह सोच लड़कियों को बोझ समझने और उनके जन्म को हतोत्साहित करने की ओर ले जाती है। गरीबी, शिक्षा की कमी और दहेज प्रथा का प्रचलन भी लड़कियों के जन्म को लेकर नकारात्मक सोच पैदा करता है। अभिभावक अक्सर सोचते हैं कि बेटी का पालन-पोषण और विवाह एक बड़ा आर्थिक बोझ है। लड़कियों के महत्व और समान अधिकारों के बारे में जागरूकता का अभाव भी इस समस्या को गंभीर बनाता है।
गंभीर सामाजिक और आर्थिक प्रभाव
लिंगानुपात में इस भारी गिरावट के दूरगामी और विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं। पुरुषों की तुलना में महिलाओं की कम संख्या विवाह योग्य उम्र में पुरुषों के लिए जीवनसाथी ढूंढने में गंभीर समस्याएं पैदा करेगी। इससे समाज में असंतुलन बढ़ेगा, जिससे यौन अपराधों और मानव तस्करी, विशेषकर लड़कियों की तस्करी, का खतरा बढ़ सकता है। दीर्घकालिक रूप से, यह राज्य की जनसांख्यिकीय संरचना को प्रभावित करेगा, जिससे कार्यबल और जनसंख्या वृद्धि पर नकारात्मक असर पड़ेगा। लड़कियों की संख्या में कमी से समाज में महिलाओं की स्थिति और कमजोर हो सकती है, जिससे उनके खिलाफ भेदभाव और हिंसा बढ़ सकती है।
सरकार और समाज की भूमिका
इस गंभीर चुनौती से निपटने के लिए बिहार सरकार और नागरिक समाज संगठनों द्वारा विभिन्न प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन उन्हें और अधिक प्रभावी बनाने की आवश्यकता है। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान, केंद्र सरकार की इस योजना को बिहार में और अधिक प्रभावी ढंग से लागू करने की आवश्यकता है, जिसमें लड़कियों की शिक्षा, सुरक्षा और उनके प्रति समाज के दृष्टिकोण में बदलाव पर जोर दिया गया है। कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ बने कानूनों को सख्ती से लागू करना और दोषी पाए जाने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करना बेहद जरूरी है। अल्ट्रासाउंड क्लीनिकों की नियमित निगरानी और उन पर नियंत्रण महत्वपूर्ण है।जागरूकता अभियान: स्कूलों, कॉलेजों और ग्रामीण स्तर पर व्यापक जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए, जो लड़कियों के महत्व को उजागर करें और लैंगिक समानता को बढ़ावा दें। नुक्कड़ नाटक, कार्यशालाएं और स्थानीय समुदायों के साथ संवाद इसमें प्रभावी हो सकते हैं। लड़कियों की शिक्षा और उनके सशक्तिकरण के लिए अधिक आर्थिक प्रोत्साहन योजनाएं शुरू की जा सकती हैं, जैसे कि छात्रवृत्ति और स्वरोजगार के अवसर। दहेज प्रथा के खिलाफ सामाजिक आंदोलन को तेज करना भी आवश्यक है, ताकि बेटियों को बोझ समझने की मानसिकता को बदला जा सके।
बिहार का घटता लिंगानुपात केवल एक आंकड़ा नहीं, बल्कि एक सामाजिक बीमारी का संकेत है जिस पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। यह सुनिश्चित करना सामूहिक जिम्मेदारी है कि हर लड़की को जन्म लेने, सम्मान के साथ जीने और अपनी पूरी क्षमता हासिल करने का अधिकार मिले।
रिपोर्ट: मनीष कुमार